The Unadorned

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Wednesday, December 03, 2014

रिहाई

रि हा ई 

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सुबह के शीतल समीर से मुग्ध मन

अपने आप को कुछ देने के लिए बेताब...

भूले-बिसरे सपनों से अगर एक भी पंखुड़ी

बच कर कलम तक आ पहुंचे

बस काफ़ी है, मंजूर है मुझे  

न किसी तुक बंदी की पावंद हो वह

न किसी विन्यास की भूख हो उसमें ।

छंद ऐसा हो...

समझने वाले पढ़ें, आज़मा लें अपनी-अपनी आरज़ू से जोड़कर

भाव से भीगा हुआ...लफ्ज़ भूल जाएँ पर लय ठहर जाए

आवेग ऐसा हो, आह्वान हो इस क़दर  

एकांत में दुलारने के लिए काफी

अनकही बातों को पंख लगा दे

फिर से सपने में प्रकट हो जाए ।


खुद पर रहम करना चाहता हूँ...

कुछ देने के लिए मन है, पर औकात नहीं

लोकाचार ही तय करता है लफ़्ज़ों की गहराई

कहना चाहता हूँ मैं, माँगना भी चाहता हूँ

भेंट चढ़ाना चाहता हूँ, दे कर दीन-हीन हो जाऊं   

मेरा वजूद भी मिट जाए, कबूल है मुझे

पर यह कैसी कायरता, मज़बूर हूँ मैं    

देने की ख्वाहिश है मन में

पर भयभीत हूँ मैं ।


सुबह के शीतल समीर से मुग्ध मन

अपने आप को कुछ देने के लिए बेताब...

सोचते-सोचते शाम ढलने को है अब  

क्या मैं अपने आप पर रहम कर सकता हूँ?

या फिर से सपना आने तक करना होगा इंतज़ार?

अथवा अँधेरे में खुद को संभाल कर

लफ़्ज़ों को पुनः परिभाषित करना होगा?

सारी रात, नीरवता--मेरी हमराही के सानिध्य में  

चारों ओर बिखरी भीनी-भीनी खुशबू से मदहोश,

दूर-दूर से बहते आए मार्मिक संगीत से मंत्रमुग्ध,

हँसते हुए तुम्हारे नूरानी चेहरे को याद कर

क्या कविता-कलम-कायरता से जूझ लूँ, 

या फिर से, कल की किस्मत के इंतज़ार में 

एक नई सुबह की राह देखूँ ?
   
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By
A. N. Nanda

Shimla

3-12-2014
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2 Comments:

Anonymous राजेशवरी गौतम said...

सर,बहुत ही सुंदर ,भावुकतापूर्ण कविता है। "समझने वाले पढें......." सच में , अपनी -अपनी आरज़ु से कविता को जोड़ लेते हैं पाठक और हर एक को आह्लादित करने में एक ही कविता के अनेक अर्थ हो जाते हैं। और भी ,लोकाचार के निर्वाह में शब्दों को उनके सहज - सुंदर रुप का बलिदान तो बहुधा देना ही पड़्ता है !व्यावहारिकता का यही तकाज़ा है । परंतु,सपने भी तो अपनी मर्ज़ी से नहीं आते । बहुत ही सुंदर कविता है । ह्र्दय के अनकहे बोल अत्यंत अनुशासित एवं मर्यादापूर्ण तथा वह भी छंदों से मुक्त कोमलकांत पदावली में पाठकों के समक्ष रखने का कठिन कार्य आप सहज ही कर लेते हैं । ससम्मान !

11:44 PM  
Blogger The Unadorned said...

धन्यवाद राजेश्वरी जी । मेरे ख़याल में कवि को भी कभी-कभी खुद की परवरिश करनी चाहिए । उसे उसूल तोड़ने की आज़ादी चाहिए । नए की तलाश और साथ ही पुरानी परम्पराओं के साथ समझौता, यह दो जुझारू पालतुओं को कंधे पर ढोने के बराबर है । सृजनशीलता भी बलिदान की चाहत रखती है । खैर, मैं यह जानकर प्रसन्न हूँ कि कविता आपको पसंद आई । मेरी हौसलाफजाई के लिए यह पर्याप्त है ।

7:51 AM  

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