The Unadorned

My literary blog to keep track of my creative moods with poems n short stories, book reviews n humorous prose, travelogues n photography, reflections n translations, both in English n Hindi.

Thursday, March 26, 2015

जाते-जाते




जा ते - जा ते 

समझता हूँ मैं जो तुम सोचती हो

अपनी भावना की गठरी से कुछ तो मेरी तरफ़ बिखेरती होंगी  

है कहीं फासला तुम्हारी सोच और मेरी समझ के बीच ?


सब तो आते हैं मेले में,

आखिर मक्सद एक ही होता है

पर पहनावे में फर्क है क्योंकि

पहनते हैं हम जान-बूझकर,

करते हैं औरों को गुमराह

पर तुम जानती हो मेरे आने का मक्सद

और मैं जानता हूँ तुम्हारा ।


आ कर मेले में खाली हाथ लौटना मंजूर नहीं मुझे

तुम्हे भी एतराज़ है यात्रा तुम्हारी निष्फल हो रही है

सजधज कर, फिर घर से इतना दूर !   

चलो, ले लेते हैं एक दुसरे का बोझ

और चल पड़ते हैं अपने-अपने घरों में



अपनी-अपनी चूल्हे-चक्कियाँ करती हैं इंतज़ार....

घर बैठे, उन सबों के साथ

अंतरंगता के वही पुराने पन्नों को सहला कर  

सोचते जाएंगे

मेले में कुछ भूल तो नहीं गए !


समझता हूँ मैं जो तुम सोचती हो

अपनी भावना की गठरी से कुछ तो मेरी तरफ़ बिखेरती होंगी  

है कहीं फासला तुम्हारी सोच और मेरी समझ के बीच ?
   
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By
A N Nanda
Shimla
27-03-2015
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Labels:

2 Comments:

Anonymous राजेशवरी गौतम said...

सर, बहुत ही सुंदर कविता है , अत्यंत सहज , सरल सार्गर्भित, बिल्कुल आपके सौम्य व्यक्तित्व की तरह !बिना कोई बनावटीपन लिए ,ह्र्दय के भावों को ज्यों का त्यों ,परोस दिया है आपने पाठकों के समक्ष !मुझे तो हमेशा से ही आपकी कविताएं बहुत गहरे स्पर्श करती हैं ! हार्दिक साधुवाद ,सादर!

9:38 PM  
Blogger The Unadorned said...

सुक्रिया राजेश्वरी जी । आप के हर शब्द मुझे बेहद उत्साहित करते हैं ।

3:40 AM  

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